क्रोध अग्नि के समान है !

क्रोध अग्नि के समान है, जिस प्रकार अग्नि अपने तेज व प्रभाव से किसी भी वस्तु को जलाकर नष्ट कर देती है ठीक उसी प्रकार क्रोध भी अग्नि के स्वभाव के अनुकूल जलाने व नष्ट करने का कार्य संपादित करता है ।

यह सच है अग्नि के प्रज्वलित होने में आवश्यक सामग्रिओं की आवश्यकता होती है ठीक उसी प्रकार तत्कालीन उपजे हालात क्रोध को जन्म देते हैं, दोनो ही अपने अपने स्वभाव के अनुरूप आस-पास के वातावरण को गर्म कर देते हैं और जो कोई उनके नजदीक आते हैं उन्हें भी तेज का सामना करना पडता है।

अग्नि व क्रोध परिस्थियों के अनुरुप सकारात्मक कार्य भी संपादित करते हैं किंतु इन पर नियंत्रण अत्यंत आवश्यक है यदि नियंत्रण नही रखा गया तो इनके परिणाम नकारात्मक रहते हैं।

जिस प्रकार अग्नि शनै शनै जलकर शांत होकर राख का रूप ले लेती है ठीक उसी प्रकार क्रोध भी समय के साथ साथ शांत हो जाता है किंतु जब तक ये क्रियाशील रहता हैं तब तक इसके प्रभाव अत्यंत खतरनाक व नकारात्मक बने रहते हैं।

क्रोध एक ऎसी ज्वाला है जो मन मस्तिष्क में जलती है इसलिये यह स्वयं के शरीर के लिये अहितकर होती है जब तक यह शांत नही हो जाती तब तक स्वयं के शरीर को अपने चपेट में रखती है, क्रोध को शांत करना बेहद कठिन कार्य है, आज तक ऎसी कोई साधना या दवा नहीं बनी जो क्रोध को तत्काल शांत कर दे।

क्रोध पर नियंत्रण स्वभाविक व्यवहार से ही संभव है जो साधना से कम नहीं है, सर्वप्रथम तो क्रोध के कारणों को अपने व्यवहारिक जीवन से दूर कीजिये यदि दूर करना संभव न हो तो स्वयं उन हालात से कुछ समय के लिये दूर हो जाईये, इसके पश्चात क्रोध के कारणों पर एक सफ़ल वक्ता की तरह अपने मित्रों के समक्ष भडास निकालते हुये अभिव्यक्त कर दीजिये, निरंतर कुछ दिनों तक भडास निकालते रहिये ... शनै शनै मन शांत होने लगे तब स्वयं समीक्षा करते हुये क्रोध को समूल नष्ट कर दीजिये।

7 comments:

संजय भास्‍कर said...

क्रोध अग्नि के समान है, जिस प्रकार अग्नि अपने तेज व प्रभाव से किसी भी वस्तु को जलाकर नष्ट कर देती है ठीक उसी प्रकार क्रोध भी अग्नि के स्वभाव के अनुकूल जलाने व नष्ट करने का कार्य संपादित करता है ।

krodh sab kuch nast kar deta hai......

अरुणेश मिश्र said...

सत्य वचन महराज ।

Udan Tashtari said...

आचार्य जी

बहुत आभारी हूँ आपके इन सदविचारों के लिए. आप तो जैसे ब्लॉगजगत के लिए वरदान स्वरुप अवतरित हुए हैं भक्त का प्रणाम स्वीकारें और चरणों में जगह दें.

ऐसे ही सदविचारों से हमारा प्रगति मार्ग अग्रसर करते रहें और आशीर्वाद बनाये रखें.

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

महाराज आप धन्य हैं जो भीषण ज्वालाओं के बीच शीतल जल रुपी वाणी की फ़ुहारों से ब्लाग जगत को प्लावित कर रहे हैं।
वैसे भी अब हमारा मन इधर से विरक्त होते जा रहा है,बस वानप्रस्थ लेकर आपकी शरण में ही आने की सद्इच्छा है।
उदय जी भी आपका शिष्यत्व स्वीकार कर रहे हैं। इसलिए हमें भी अपना चेला बनाए के उद्धार किजिए।

दिगम्बर नासवा said...

सत्य वचन .... आशीर्वाद बनाये रखें ...

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

Aap bhee apnee indriyon par thodaa niyantran rakhiye maharaaj .

shyam gupta said...

"..दोनो ही अपने अपने स्वभाव के अनुरूप आस-पास के वातावरण को गर्म कर देते हैं और जो कोई उनके नजदीक आते हैं उन्हें भी तेज का सामना करना पडता है।"---

--आचार्य जी , क्रोध के लिये ’तेज’ शब्द का प्रयोग अवान्छनीय है। तेज शब्द गुणात्मक भाव के लिये प्रयोग होता है.तेज रिषियों-मुनियों- महानात्माओं के लिये प्रयोग होता है, क्रोध के लिये नहीं।