"मैं जैसे जैसे भ्रष्टाचार की सीमाएं तोड़ रहा था ठीक वैसे वैसे ही मेरे परिजन शिष्टाचार की मर्यादाएं तोड़ रहे थे, अंत में मैंने पाया कि दौलतें व बच्चे दोनों ही मेरे हाथ से निकल गए।"
आचार्य उदय
जाति, धर्म, संप्रदाय से परे है मानव धर्म ......... मानव धर्म की ओर बढते कदम !
3 comments:
sahmat ek doosare par asar padta hee hai........
Aabhar.
sach mein bhrastachar ke saath bahut see burayee ka aana lazmi hai... achhi prastuti
अन्त वही होता है।
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