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आचार्य जी
जाति, धर्म, संप्रदाय से परे है मानव धर्म ......... मानव धर्म की ओर बढते कदम !
शत्रुता
"
यदि
किसी
मित्र
में
शत्रुता
के
भाव
परिलक्षित
हो
रहें
हैं
तो
उसे
शत्रु
मानकर
तत्काल
अपने
से
दूर
करिये
क्योंकि
शत्रु
सदैव
ही
शत्रु
रहता
है
।"
आचार्य
उदय
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आचार्य जी
aachaaryjee@gmail.com
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